Wednesday, February 01, 2006
 

भारत में भाषा कुशलता ग़ायब होती जा रही है

अंग्रेज़ी पत्रिका Frontline में अर्थ्शास्त्री और स्तंभ-लेखिका प्रोफ़ेसर जयती घोष का यह प्रस्ताव है: भारत में भाषा कुशलता ग़ायब होती जा रही है। उनके अनुसार यह प्रक्रिया हमें केवल अंग्रेज़ी में ही नहीं बलकि भारत की अन्य भाषाओं में भी देखने को मिल रही है। हिन्दी, तमिल, मराठी -- इन सब भाषाओं में शिक्षकों की शिकायत है कि बुनियादी हुनर भी अब मिलना मुशकिल हो गया है, ख़ासकर लेख के क्षेत्र में। घोष कहती हैं, “इस तरह आज हमारी शिक्षा व्यवस्था से ऐसे लोग बाहर निकल रहे हैं, जिन्हें किसी भी भाषा में नैपुण्य नहीं है।"

घोष का कहना है कि पिछली दो पीढ़ियों की तुलना में आज के नौजवानों में भाषा कुशलता कम होने के पाँच ख़ास कारण हैं -- (क) व्याकरण और वर्तनी पर कम ज़ोर; (ख) विद्यार्थियों की शब्दावली बढ़ाने की उपेक्षा; (ग) साहित्य पढ़ने में कम अभिरुची; (घ) नयी कंप्यूटरी तकनीकियों के कारण जो ना ही केवल वर्तनी ठीक कर देती हैं, पर ठीक शब्द भी प्रदान करती हैं; (च) भाषा और वर्तनी को अपांग करने वाली ईमेल और सेलफ़ोन की SMS (लघु-संदेश सेवा)।

यह थीं कारणे लिखने के सिलसिले में। जहाँ तक बोलने का सवाल है, वे कहती हैं कि कसूर है मनोरंजन उद्योग का, ख़ासकर टेलिविज़न पर अमेरिका की धारावाहिकों का राज और फिर उनके भारतीय अवतार जो "हिंग्लिश", यानी हिन्दी और अंग्रेज़ी का एक अजीब मेल इस्तेमाल करती हैं।

घोष कह्ती हैं, यह भाषा कुशलता का घटना इस विश्वव्यापी दुनिया में हमारे आर्थिक सेहत के लिए हानिकारक होगा। भविष्य में हमें भाषा निपुणता की ज़्यादा ज़रूरत होगी, कम नहीं। इसके अलावा उनका कहना है कि अगर भाषा और विचार का इतना गहरा संबन्ध है ("जैसा चोम्स्की और पिंकर मानते हैं"), तो क्या यह कहना सच न होगा कि भाषा अभिव्यक्ति की निर्बलता के साथ-साथ विचार शक्ति भी दुर्बल होती जाएगी?

भारत में क्या भाषा कुशलता दरअसल घट रहा है, और इसके क्या कारण हो सकते हैं, यह अपने-आप में मुशकिल सवाल है। पर इतना ज़रूर है, कि अगर यह सच है, तो हमें चिन्ता इस लिए कम करनी चाहिए कि इसका असर हमारे कॉल-सेन्टरों और अन्य सेवाओं पर पड़ेगा। यह कुशलता का कम होना इससे कहीं ज़्यादा चिन्ताजनक इसलिए है क्योंकि आज के भारत में हमें जिन समस्याओं से निबटना है, उनके बारे में जानकारी पाने के लिए और उन समस्याओं का समाधान पाने के लिए अनेक बहसों को समझना आवश्यक है। और इस समझ केलिए व्यापक स्तर पर भाषा निपुणता ज़रूरी है।

मिसाल के तौर पे, बीजों में आनुवंशिक तब्दीलियाँ (जेनेटिक इंजिनियरिंग) का सवाल, या फिर पानी का सप्लाई या परिवहन का ग़ैर सरकारी हाथों में होने का प्रश्न -- अगर लोकतंत्र में इन मसलों पर ग़ौर करने की कुशलता ग़ायब हो रही है, तो इन समस्याओं का समाधान ढूंढने का हक और ताक़तें छीन लेंगी।

प्रोफ़ेसर घोष का लेख पढ़िए (अंग्रेज़ी में) यहाँ पर

आपके विचार:
excuse me for english. but what you say is absolutely true.
 
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