Sunday, February 19, 2006
 

आयुक्त भाषाई अल्पसंख्यक का ४१-वाँ रिपोर्ट

अल्पसंख्यक भाषाओं की ओर, ख़ासकर उर्दू की ओर, अधिक सरकारी ध्यान की माँग करते हुए एक लेख पढ़ रहा था (यहाँ पर) कि अचानक (जैसा अकसर इंटरनेट में होता है) किसी और साईट पर जा पहुँचा। और यहाँ पढ़ने को मिला यह लंबा और उपयोगी प्रतिवेदन आयुक्त भाषाई अल्पसंख्यक का। आयोग का यह ४१-वाँ रिपोर्ट (१९५७ में यह आयोग स्थापित किया गया था) आप हिन्दी में यहाँ पढ़ सकते हैं (और अंग्रेज़ी में यहाँ)

इस रिपोर्ट की शुरुवात में आयुक्त ने अल्पसंख्यक भाषाओं की सुरक्षता के सिलसिले में कई और देशों और समुदायों के अनुभवों और प्रबंधों का वर्णन किया है। न्यूज़ीलैंड, वेल्ज़, हंगेरी, रूस... ज़ाहिर है कि आयुक्त ने इस सिलसिले में काफ़ी कुछ जाँच-परख की है।

प्रतिवेदन का ख़ास भाग भारत के विभिन्न राज्यों की भाषा राजनीति पर ग़ौर करता है। और बार-बार हमें देखने को मिलता है, कि भाषाई बहुसंख्यक अल्पसंख्यक भाषाओं के सुरक्षण की क़दर नहीं कर रहा है। मिसाल के तौर पे, संविधान के अनुसार बच्चों को मातृ भाषा के माध्यम में शिक्षा का हक है। ऐसे ही, देश के हर नागरिक का हक है, कि वो सरकार को आवेदन पत्र या अभ्यावेदन अपनी ज़बान में लिख सकता है, और सरकार का फ़र्ज़ बनता है कि वो ना केवल इन्हें क़बूल करे पर इन लेखों का जवाब भी उस नागरिक की ज़बान में ही दे। इसके अलावा, सरकारी नौकरियों के सिलसिले में भाषा के आधार पर भेद-भाव ग़ैर-कानूनी है। पर आयुक्त का कहना है, कि सरकारें काफ़ी बड़े पायमाने पे इन नियमों का उल्लंघन कर रही हैं।

रिपोर्ट के मुख्य अनुशंसाओं में एक यह है, कि संविधान की आठवीं अनुसूचि को विलुप्त कर दिया जाए। आयुक्त का कहना है कि इन २२ ज़बानों की सूची के कारण देश की सभी भाषाओं को समान मानना कठिन हो गया है। (उनके अनुसार, इस अनुसूची के विलुप्त कर देने का एक अर्थ यह होगा कि, "जनगणना आयुक्त द्वारा १०,००० से कम व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं को प्रतिवेदन न करने की प्रथा को समाप्त कर दिया जाए।" अर्थार्त, देश की बड़ी, छोटी और बहुत छोटी -- सभी भाषाओं -- का गणन हो।) यह ४१-वाँ प्रतिवेदन यह भी अनुशंसित करता है, कि वित्त आयोग राज्यों को विशेष अनुदान प्रदान करे जिससे कि वे भाषाई अल्पसंख्यकों का मातृ भाषा में अध्यापन करा पाएँ।

इस रिपोर्ट की एक ख़ासियत यह है, कि आयुक्त श्री कृष्ण केवल सेठी की अपनी "आवाज़" अकसर सुनने को मिलती है। कुछ झलकियाँ:

"१.२४. सौभाग्यवश भारत में हम ने सदैव ही बहु आयामी संस्कृति के सिद्धाँत को अपनाया है। हमारे यहाँ किसी भाषा या संस्कृति को दबाने की प्रथा नहीं रही सिवाये कुछ ऐसे समूहों को छोड़ कर जिन्हों ने पाश्चात्य राष्ट्र आधारित राज्यों के विचार को अपना लिया है जिसमें धारणा है कि किसी अन्य समूह का ऊपर उठना केवल उनको नीचा दिखाने की कीमत पर ही हो सकता है। परन्तु वह भूल जाते हैं कि अर्थशास्त्र की तरह भाषा विग्यान में भी किसी एक समूह का कल्याण पूरे समाज के कल्याण में वृद्धि करता है।"

"१.४६.... यह एक बेकार तर्क है कि रोमन लिपि के ग्यान से संथाली या अन्य की अंग्रेज़ी, जो कि वास्तविक लक्ष्य भाषा है, को अच्छी बना देगा। एक तो अंग्रेज़ी के ग्यान को शिक्षा का लक्ष्य मान लेना ही गलत है। दूसरा लिपि एक होने से भाषा नहीं आती है। बंगाली तथा मणिपुरी में एक ही लिपि है परन्तु रोज़मर्रा के शब्द जो दोनो भाषाओं में एक हैं, उंगलियों पर गिने जा सकते हैं।"

"४.६... जैसे अंग्रेज़ी भारतीय भाषाओं को बेदखल नहीं कर सकती वैसे ही प्रधान भषायें अल्पसंख्यक भाषाओं को हटा नहीं सकतीं। और हटाना भी नहीं चाहिये। मातृ भाषा मातृ भाषा है और उसका कोई विकल्प नहीं।"

यह एक क़ाबिल-ए-तारीफ़ और पढ़ने योग्य प्रतिवेदन है।

आपके विचार:
गिरधर जी , आपका हिन्दी चिट्ठा-जगत में हार्दिक अभिनन्दन | आपका भाषा-राजनीति को समर्पित चिट्ठा देखकर मन प्रफ्फुल्लित हो गया | यह इस बात को इंगित करता है कि अब हिन्दी चिट्ठाकारी में कितनी विविधता आ गयी है | यह बहुत ही उत्साहवर्धक संकेत है |

आपके चिट्ठे के नाम (भाषा-राजनीति) के विपरीत आपसे आशा रहेगी कि आप भाषा के अन्य पहलुओं यथा भाषा का समाजशास्त्र , भाषा का मनोविज्ञान , भाषा का विज्ञान्, भाषा की तकनीकी आदि पर भी लिखते रहेंगे |

अनुनाद सिंह
 
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